नहीं चाहिए कोई परिवर्तन मुझे,
अपनी पुरातन व्यवस्था में.
छोड़ दो मुझे एकाकी,
इसी दयनीय अवस्था में.
क्योंकि मैंने सदा ही,
औरों से चोट खाई है.
हमेशा से शिकस्त ही,
मेरे हिस्से में आई है.
साल,सागौन और महुआ वृक्ष की,
छाँव तले ही मुझे रहने दो.
अभ्यस्त तो हूं ही,सहने का मैं,
थोड़ी और पीड़ा सहने दो.
मैंने किया है सदैव,
सबका भरण-पोषण.
पर मिला क्या बदले में,
गरीबी,उपेक्षा और शोषण.
न अलापो राग यहाँ विकास का,
यही मैला पानी मुझे पीने दो.
खाओ न तरस मेरे हाल पर,
मुझे इसी तरह जीने दो.
न जाना मैंने हुनर आडंबर का,
न सीखा सजना-संवरना.
उन्नति मैं भी कर लेता,पर,
मुझे न आया किसी से छल करना.
न छोड़ना ये जल,जंगल,जमीन,
क्योंकि इनसे मुझे प्यार है.
सत्य के पथ पर चलते हुए.
यदि हार मिले तो भी मुझे स्वीकार है.
✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
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