प्राचीन काल की बात है.उस समय आज की तरह बड़े-बड़े स्कूल कॉलेज जैसी शिक्षण संस्थाएँ नहीं होती थीं, बल्कि उस समय शिष्य अपना घर-परिवार त्यागकर वनों में निर्मित आश्रमों में गुरुजी के सानिध्य में रहकर विद्या अध्ययन करते थे.वे अपने गुरु से सत्य,न्याय,धर्म और नीति संबंधी जीवनोपयोगी महत्वपूर्ण ज्ञान प्राप्त करते थे.
ऐसा ही एक आश्रम था आयोद धौम्य ऋषि का. जहां उनके सैकड़ों शिष्य विद्या अध्ययन करते थे.यहाँ शिष्यों को न केवल पुस्तकीय बल्कि प्रायोगिक ज्ञान भी प्राप्त होता था.उन्हीं में से एक शिष्य था-आरुणि.
एक बार की बात है,वर्षा ऋतु थी.आश्रम से कुछ दूरी पर कुछ खेत थे,जहाँ विद्यार्थियों द्वारा धान की फसल लगाई गई थी.उस दिन बहुत जोरों की वर्षा हुई थी.गुरु धौम्य ने अरुणि को अपने पास बुला कर कहा-" बेटा बहुत जोरों की बारिश हुई है! तुम जाकर खेतों को देख आओ,कहीं जल के तेज बहाव से कोई मेड़ न टूट गई हो. यदि ऐसा हो गया हो तो तुम मेड़ जरुर बांध देना."
"जी गुरुजी"-अरुणि ने सिर झुका कर कहा,और अकेले ही खेतों की ओर निकल पड़ा.
कुछ दूर चलने के पश्चात अरुण खेतों में पहुंचा.सचमुच एक जगह की मेड़ टूटी हुई थी,जिससे होकर खेत का सारा पानी व्यर्थ बहा जा रहा था.अरुणि ने कुछ मिट्टी मेड़ पर डाली,पर वह पानी के तेज बहाव में बह गया. आरुणि ने कई बार कोशिश की किंतु,उसका हर प्रयत्न व्यर्थ गया. उसे गुरुजी की बात याद आई कि-"टूटे मेड़ को जरूर बांध देना."
उसे एक उपाय सूझा.वह मेड़ के नीचे सो गया.अब पानी का बहना रुक गया.गुरु जी की आज्ञा थी कि पानी व्यर्थ न बहे,भला अब वह उठता कैसे.इसलिए वह वहीं सोया रहा.
सूर्यास्त हुआ और चहुँओर अंधकार फैल गया. उधर आश्रम में धौम्य ऋषि को बहुत चिंता हुई कि आरुणि अब तक वापस क्यों नहीं आया?हाय!उसने आरुणि को अकेले कैसे जाने दिया? कहीं वह किसी संकट में तो नहीं पड़ गया?
अयोध्या धौम्य अविलंब अपने सभी शिष्यों के साथ,हाथों में मशाल लिए खेतों की ओर दौड़ पड़े.खेत में पहुचकर रात के अंधेरे में उसने आरुणि को आवाज दी-"बेटा आरुणि!तुम कहां हो?"
आरुणि खेत में सोया हुआ था,ठंड के कारण उसके दांत किटकिटा रहे थे,शरीर में कम्पन्न था और मुंह से आवाज भी नहीं निकल पा रही थी.
बड़ी मुश्किल से उसने उत्तर दिया-"गुरु जी मैं यहां हूं."
सभी उस जगह पहुंचे जहां,आरुणि लेटा हुआ था.
गुरूजी ने पूछा-"बेटे!तुम यहां क्यों लेटे हुए हो?
आरुणि ने उत्तर दिया-"गुरु जी आपकी आज्ञा थी,कि खेत से पानी बेकार न बह जाए,इसलिए मैं आपकी आज्ञा शिरोधार्य कर यहीं लेट गया."
गुरु जी की आज्ञा पाकर आरुणि उठ खड़ा हुआ.गुरुजी की आंखों में प्रेम के अश्रु छलक आए.उन्होंने शिष्य को अपनी बाहों में भर लिया.
उन्होंने अरुणि आशीष देते हुए कहा-" बेटा आरुणि!एक सच्चे गुरु भक्त के रूप तुम्हें और तुम्हारे कार्य को सदैव याद किया जाएगा."
गुरु से ऐसा आशीष पाकर आरुणि धन्य हो गया.
✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़
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