शनिवार, 22 जुलाई 2017

||शहर कैसे बन गया,मेरा गाँव||

तुमसे जुड़ा था अतीत मेरा,
तुम थे मेरे बचपन के यार.
अब,जब बदल गये तुम,
न रहा तुमसे,वो पहले जैसा प्यार.

चढ़ जाते थे होकर निडर,
हम जिन पर,
न रहे वो शहतूत-नीम के पेड़.
न रहे वो आँगन में खिले,
गुलाब,मोगरे,गेंदे के फूल.

मिट गई हरे-भरे-मूक,
वृक्षों की सुन्दर दुनिया.
आज धुआँ छोड़ते-
भयानक शब्द करते,
वहाँ गरज रहे हैं,
दैत्याकार कारखाने.

खेल के मैदानों में,
तन कर खड़े हैं,
बड़े-बड़े और ऊँचे,
सीमेंट,ईंट-पत्थरों के महल.

कहाँ गया वो,
स्वच्छ जलयुक्त,
मनोरम कमलताल.
और तट पर खड़े,
गुलमोहर-खजूर के पेड़.

कल तक तेरी खुशबू से,
मदहोश हुआ जाता था मैं.
आज तो तेरी जहरीली हवा में,
जैसे घुटता है मेरा दम.

नदी गंगा सी पावन,
तब्दील हो गई गंदे नाले में.
कल तक क्या था,
आज ये क्या हो गया.
मेरा स्कूल भी अब,
जैसे खंडहर हो गया.

आए कई बदलाव,
कम हुई सबकी दुश्वारियाँ.
पर बढ़े दिलों के फासले,
घट गई हों भले,भौतिक दूरियाँ.

पर मैं तुम्हारे बदलाव से,
बिलकुल भी ख़फा़ नहीं.
क्योंकि इसमें तुम्हारी,
थोड़ी भी खता नहीं.

क्योंकि मुश्किल में सब लोग,
किनारे से निकल जाते हैं.
दुनिया की चकाधौंध में,
कई लोग बदल जाते हैं.

नहीं रहे अब वो,
आम-पीपल-बरगद के छाँव.
आखिर एकाएक,
शहर कैसे बन गया मेरा गाँव.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

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