ये रजताभ सुन्दर श्वेत वारिद.
नील नभ पे विचरते.
ये हरित साल वृक्षों की पंक्तियाँ,
तन-मन की ताप हरते.
आकाश का आलिंगन करते,
ऊँचे-छोटे गर्वित अचल.
रवि के स्वर्ण किरणों से नहाया,
कमल ताल का तरंगित जल.
कानों में मिश्री घोलती,
पक्षियों के गायन की मधुरता.
कल-कल सरिता की ध्वनि,
भंग करती वन की नीरवता.
आह ये धरा वधू का,
सुन्दर श्रृंगार.
जी करता कि देखें
इसे हम बारम्बार.
तू इस सुख से परे,
है किस सुख की खोज में,ओ बावरा मन.
ये सौंदर्य कल फिर न मिलेगा,
इसलिए आज ही कर ले इसके दर्शन.
✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)
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