सोमवार, 15 जनवरी 2018

||कुरुभूमि से-2||

कृष्ण बोले-हे अर्जुन तुम,
अकारण ही रोते हो.
क्या होगा परिणाम सोचकर,
तुम व्यर्थ चिंतित होते हो.

अभी तो युद्ध के लिए,
हुए थे तत्पर.
अब हुआ क्या,
तुम्हें हे!धनुर्धर.

सत्य का है भान तुम्हें,
तुम हो धर्म धुरंधर.
फिर अपने-पराये का मोह,
कैसे जागा तुम्हारे अंदर.

ये परिजन-कुरुभूमि और,
ये तन तुम्हें बहुत प्यारा है.
क्या ज्ञात नहीं कि जग में,
कुछ भी नहीं तुम्हारा है.

धर्मरक्षा हेतु शस्त्र उठाना,
बिलकुल भी अनुचित नहीं.
पापियों-अपराधियों को,
दण्ड देना क्या उचित नहीं?

कहा अर्जुन ने-पितामह,द्रोण,कर्ण,अश्वत्थामा,
तो बंधे हैं वचनों से,वे बिल्कुल निर्दोष हैं.
कूद पड़े हैं इस युद्ध में और भी कई,
उन असंख्य योद्धाओं का आखिर क्या दोष है?

हे धीर बुरे कर्म करके मानव,
भले थोड़ी देर मुस्कराता है,
पर हर कोई एक दिन अपनी
करनी का फल अवश्य पाता है.

द्यूतसभा में जब दुशासन ने,
द्रौपदी का आँचल छुआ था.
तब एक नारी का ही नहीं बल्कि,
पूरी नारी जाति का अपमान हुआ था.

पर सभासद सभी जड़वत खड़े थे,
कहा नहीं किसी ने एक भी शब्द.
बिलखती-चीखती रही एक अबला,
पर सभासद थे बिलकुल नि:शब्द.

और सुनो हे!पार्थ अर्धर्मी,
धर्म को जितनी हानि पहुचाता है.
उससे अधिक अधर्मी तो वो हैै जो,
धर्मज्ञानी होकर भी चुपचाप रह जाता है.

धर्मी जब स्वयं को,
असहाय पाते है.
और दुराचारी
अपना सिर उठाते हैं.

जब पुत्र ही,
माता-पिता से वाद करे.
जब मनुष्य भोगी बन जाए,
जुआ खेले,बकवाद करे.

जब खेलने की एक वस्तुमात्र,
बन जाए नारी.
जब  पड़ने लगें दुर्जन,
सज्जनों पर भारी.

तब-तब प्रकृति,
स्वयं को संतुलित करती है.
नवनिर्माण हेतु सृष्टि का,
विनाश करती है.

लोकहितार्थ किया गया,
अधर्म भी एक प्रकार से धर्म है.
क्षत्रिय हो तुम,
युद्ध करना तुम्हारा कर्म है.

पर माधव!पुनर्निर्माण के नाम पर,
मैं पाप का भागी क्यूँ बनूँ?
धर्म की रक्षा के लिए मैं,
अधर्म का पथ क्यूँ चुनूँ?

यही तो मानव का भ्रम है कि,
सब कुछ करता है वही.
पर सत्य तो यह है,कि वह
अकेला,मेरे बिना कुछ भी नहीं.

हे यशोदानन्दन,
गोवर्धन गिरिधारी,हे सुरभूप.
मैं हूँ दर्शन का इच्छुक,
दिखाएँ अपना वास्तविक रूप.

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को,
दिव्य नेत्र दिया.
उन्होंने हरि के,
विराट रूप के दर्शन किया.

पाताल से आकाश को छूती,
मनोरम-श्यामल देह विशाल.
मानो आकार लेकर,
साक्षात् सामने खड़ा हो काल.

जब-जब जग में धर्म,
करता है चीत्कार.
तब-तब मानवता के रक्षार्थ,
लेता हूँ मैं अवतार.

जड़ चेतन समस्त जगत के,
मैंने ही बनाए हैं.
ग्रह-तारे,शशि-सूरज ये,
मैंने ही सिरजाए हैं.

भूमि-आकाश,जल-अग्नि,
जन्म-मृत्यु,हर्ष-विषाद मैं ही हूँ.
आदि-अन्त,जय-पराजय,
दिवस-रात्रि,निशब्द-निनाद मैं ही हूँ.

मोह-माया से घिरकर,
न बनो पार्थ मनोरोगी.
करो कर्म,फल की इच्छा त्यागो,
बनो तुम कर्मयोगी.

न होवो अत्यधिक प्रसन्न,
किसी तरह के सुख में.
और न कभी,
दुख मनाओ दुख में.

धर्म हो चुकी कलुषित अब,
अर्जुन इसे शुद्ध करो.
वीर हो तुम पांडुपुत्र,
शस्त्र उठाओ और युद्ध करो.

अब तक वह था मानो,
कोई नन्हा बालक अबोध.
सुनकर प्रभु की अमृत वाणी,
हुआ कुन्तीसुत को सत्य का बोध.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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