शायद इसलिए कि,
बहुत आगे निकल गया है
बेटा सच में तू,
बहुत बदल गया है.
देश बसाया तुमने,
बहुत दूर अपनों से.
सच को छोड़के,
नेह लगा बैठे हो सपनों से.
क्या अपना गाँव,
अब तुझे नहीं भाता?
अब कभी भूलकर भी,
तू इधर नहीं आता.
क्या रास नहीं आता तुम्हें,
पक्षियों का गीत,वो स्वर्णिम प्रभात.
क्या मन नहीं करता देखने का,
वो चाँद-तारोंभरी सुन्दर रात?
झरनों की मधुर ध्वनि से,
तुम्हारा मन उचट गया?
गाँव का त्याग कर तू,
शहर से लिपट गया?
जब तेरे पैरों में न चप्पल,
और न ही जूते थे.
तब तुम रोज,
अपनी माँ के पैर छूते थे.
सब कुछ खरीद लेगा अब,
तेरे पास बहुत पैसा हो गया.
मुझे तो यकीन ही नहीं होता,
कि तू अब ऐसा हो गया.
खैर धन पाते ही मानव,
बदल जाता है,तू भी बदल गया.
न बदलेगा तू विश्वास था मन में,
अच्छा हुआ कि वो पिघल गया.
पर याद रख ये विशाल वृक्ष,
मात्र अपने सामर्थ्य पर नहीं खड़े हैं.
जमीन में बड़ी मजबूती से,
गहराई तक जमी उनकी जड़ें हैं.
उसी तरह तू यदि पेड़ है,
तो याद रख गाँव तुम्हारी जड़ है.
अपनी माटी-अपने संस्कार बिन,
कुछ भी नहीं तू,पत्थर की भाँति जड़ है.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
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