शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

||मनुज हैं,मनुज बनें हम||

मानव रूप में यहाँ,
दानवों की भरमार.
क्षणिकावेश में आके जो,
करें प्राणघातक प्रहार.
धैर्य-सहनशक्ति न रही,
बात-बात पे करते हैं रार.
सम्बंधों के तार अब,
हो रहे हैं तार -तार.
वृद्ध माँ-बाप लगते आज,
सन्तानों को भार.
धर्म-दान,शिक्षा-सेवा,
बन गया व्यापार.
पैसेवाले खरीद लेते हैं अपनी जीत,
योग्य बेचारों की होती है हार.
सत्यमार्ग पर चले कोई,
होंगे यही कोई दो-चार.
मनुज हैं,मनुज बनें हम,
हो यही जीवन का सार.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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