अब तक मेरे,
सैकड़ों जन्म हुए.
मैंने अनेक,
शरीर धारण किए.
जन्म-मृत्यु का ये चक्र,
जब से चल रहा है.
तब से हृदय में,
मातृभूमि के लिए प्रेम पल रहा है.
इसलिए तो बार-बार,
मैं जन्म लेता हूँ बस्तर की भूमि पर.
बल्लियोें-लकड़ियों-खपरैल से,
बनाता हूँ मिट्टी का एक नन्हा सा घर.
इन वृक्षों-पर्वतों-नदियों झरनों को देख,
तन रोमांचित हो जाता है .
सघन वन में प्रतिध्वनित होते कलरव सुन,
मन कहीं खो जाता है.
छिंद,सल्फी-ताड़ पेडो़ं पर चढ़ मैं,
उनके मीठे रस से अपनी हाँडियाँ भरता हूँ.
वनोपज संग्रह कर मैं अपना,
जीवन निर्वहन करता हूँ.
घर की बाड़ी में सेमी,करेला-
लौकी-कुमडा जिर्रा भाजी उपजाता हूँ.
और उसे मैं,
साप्ताहिक बाजारों में बेच आता हूँ.
आज भी दोने में खाते हम,
हैं घरों में आज भी माटी के बर्तन.
समय बदला-सब कुछ बदले,
पर न छू सका हमें तनिक भी परिवर्तन.
हर बार जन्म से पूर्व पूछता है,
मुझसे ईश्वर,बता अब किधर?
होता है हर बार,जवाब मेरा,
और कहीं नहीं,फिर से बस्तर.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
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