गुरुवार, 4 जनवरी 2018

||फिर से बस्तर||

अब तक मेरे,
सैकड़ों जन्म हुए.
मैंने अनेक,
शरीर धारण किए.

जन्म-मृत्यु का ये चक्र,
जब से चल रहा है.
तब से हृदय में,
मातृभूमि के लिए प्रेम पल रहा है.

इसलिए तो बार-बार,
मैं जन्म लेता हूँ बस्तर की भूमि पर.
बल्लियोें-लकड़ियों-खपरैल से,
बनाता हूँ मिट्टी का एक नन्हा सा घर.

इन वृक्षों-पर्वतों-नदियों झरनों को देख,
तन रोमांचित हो जाता है .
सघन वन में प्रतिध्वनित होते कलरव सुन,
मन कहीं खो जाता है.

छिंद,सल्फी-ताड़ पेडो़ं पर चढ़ मैं,
उनके मीठे रस से अपनी हाँडियाँ भरता हूँ.
वनोपज संग्रह कर मैं अपना,
जीवन निर्वहन करता हूँ.

घर की बाड़ी में सेमी,करेला-
लौकी-कुमडा जिर्रा भाजी उपजाता हूँ.
और उसे मैं,
साप्ताहिक बाजारों में बेच आता हूँ.

आज भी दोने में खाते हम,
हैं घरों में आज भी माटी के बर्तन.
समय बदला-सब कुछ बदले,
पर न छू सका हमें तनिक भी परिवर्तन.

हर बार जन्म से पूर्व पूछता है,
मुझसे ईश्वर,बता अब किधर?
होता है हर बार,जवाब मेरा,
और कहीं नहीं,फिर से बस्तर.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

कोई टिप्पणी नहीं:

चाटी_भाजी

 बरसात के पानी से नमी पाकर धरती खिल गई है.कई हरी-भरी वनस्पतियों के साथ ये घास भी खेतों में फैली  हुई लहलहा रही है.चाटी (चींटी) क...