मैं दीया हूँ.
तुम्हारी तरह सजीव तो नहीं
पर औरों के लिए मैं जलता हूँ,
जीवन के अंतिम क्षण तक.
मैं जलता हूँ..
ताकि मेरे आलोक में
बढ़ सके कोई दिक्भ्रमित पथिक,
अपने लक्ष्य की ओर.
ताकि मेरे आगे करबद्ध हो,
कोई माँ करे ईश्नर से प्रार्थना
अपने पुत्र के लम्बी उम्र की .
ताकि मेरी रौशनी में पढ़ सके,
उस गाँव का गरीब बच्चा,
जहाँ नहीं पहुँच सकी है
बिजली अाज तक.
तुमने खड़े कर रखे हैं,
जहाँ में कई मजहबी दीवार.
पर मेरा कोई मजहब नहीं,
हिन्दू हो या मुस्लिम,
सिक्ख हो या इसाई.
मैं घर-घर बाँटता हूँ रौशनी.
और लाता हूँ सबके जीवन में खुशियाँ.
हाँ जलते हुए पीड़ा होती है मुझे,
पर देखके औरों के चेहरे पे रौनक,
मैं भूल जाता हूँ अपने सारे दर्द.
दुनिया हँसती है हँसे,
अपने रास्ते चलता रहूँगा.
औरों से जलना नहीं आता,
बस औरों के लिए जलता रहूँगा.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
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