शनिवार, 20 अक्तूबर 2018

||निर्दय मृत्यु||

बड़ी ही निर्दय है मृत्यु.
बच्चे-औरत,जवान-वृद्ध,
किसी की नहीं सुनती,
वो आती है और चक्रवात की तरह,
और सब कुछ अपने संग उड़ाकर ले जाती है.
कल भी वो आई अपनी उसी रफ्तार से,
और अपने सैकडों लोहे के पैरों के नीचे,
कुचल गई कइयों को.
मृत्यु का तांडव चला बस पल भर.
पर न मिला किसी को संभलने का कोई अवसर.
बिछ गए लोगों के क्षत-विक्षत शव.
अचानक वातारवरण हुआ नीरव.
किसी की माँ,किसी की पत्नी,
किसी का पिता किसी का लाल.
बिखर गए रक्त और मांस पथ पर,
धरती हुई अपनों के रुधिर से लाल.
छोड़ गई मृत्यु,
अपने कठोर पैरों के निशान.
किसी सुहागिन का रक्तरंजित मंगलसूत्र-
टूटी हुई रंगीन चूड़ियाँ.
किसी गुड़िया का लहू से तर वो फ्रॉक-
वो प्यारी सी गुड़िया,
जो खरीदी थी उसकी माँ ने,
दशहरे के मेले में.
चाचा जी का टूटा हुआ चश्मा,
टूटी हुई वो सुनहरी घड़ी.
पर उस चश्मे से मौत आती न दिखी,
न ही घड़ी बता सकी ,
सके आने का सही समय.
और भी कई वस्तुएँ पड़ी हैं पटरियों पर.
जो कह रहीं हैं मृत्यु की निष्ठुरता का,
वीभत्स और करुण वृत्तांत.
सुनकर हृदय हुआ आहत-
व्यथित और अशांत.

(अमृतसर जोड़ा फाटक रेलवे दुर्घटना में मृतकों को श्रद्धाँजलि....)

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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