बुधवार, 31 अक्तूबर 2018

||सौम्या के लिए||

प्रतिमा की भाँति,
बिलकुल मौन हो.
स्वप्न हो कि सत्य हो,
कहो तुम कौन हो?

नील नयन,
लहराते केश.
स्वभाव सरल,
और सादा वेश.

निकलते हैं जब,
मुख से वचन.
लगता ज्यों,
बरस रहे हों सुमन.

आह ईश्वर की अद्भुत-
सुन्दर ऐसी  रचना.
जो देखे तुम्हें,
असंभव है उसका  बचना.

लिखूँ तुम पर कुछ और,
पर मिलते नहीं है शब्द.
देखकर तुम्हें सदा,
मैं हो जाता हूँ निश्शब्द.

तुम बिन रस नहीं,
किसी भी रस में.
कहो न रखूँ कैसे मैं,
हृदय को अपने वश में.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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