शनिवार, 10 मार्च 2018

||कुछ ऐसा कर्म कर||

प्रेम पाषाण को भी,
देवता बनाता है.
सत्य से नर,
नरायण बन जाता है.
यदि सत्य-प्रेम नहीं,
तेरे अंदर में.
क्या खाक जाता है,
तू मंदिर में.
मशीन के साथ रहके,
तू भी मशीन हो गया है.
तन तो है मानव का,पर मानव,
जैसे कहीं खो गया है.
अपने में ही सिमटा है,
खतम हो रहीं हैं तुम्हारी सँवेदनाएँ.
मची हुई है भागमभाग,
दिखती नहीं तुम्हें औरों की वेदनाएँ.
शराब के घूँट लेके,
अपने में ही मस्त है.
और जताता है ऐसे,
जैसे तू बहुत व्यस्त है.
कुविचारों के घेरे से,
मानव बाहर निकल.
छोड़ अधर्म का रास्ता,
धर्म के पथ पर चल.
बन तू किसी की,
प्रसन्नता का कारण.
भगवान स्वयं करेंगे,
तेरे दुखों का निवारण.
दो दिन का है यह जीवन,
रहो सुमन सा खिलके.
जाति-धर्म-भाषा भिन्न हों,
रहो सभी से मिलके.
इससे पहले कि,
तेरी साँसें टूट जाए.
इस तन को तन्हा छोड़कर,
आत्मा छूट जाए.
कुछ ऐसा कर्म कर हे मानव,
उठाकर अपना मस्तक.
कि सारा संसार इक दिन,
तेरे आगे हो जाए नतमस्तक.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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