शनिवार, 10 मार्च 2018

||मजदूर हम||

है गाँव में,
अपना घर.
मजदूरी के लिए,
हम आते शहर.

दोपहर तक,
जी तोड़ पसीना बहाते हैं.
फिर छाँव में बैठकर,
खाना खाते हैं.

कभी रूखा-सूखा.
कभी आलू-गोभी.
खा लेते हैं प्यार से,
मिल जाए जो भी.

काम से अपने,
हमें है प्यार.
जिससे चलता,
अपना घर परिवार.

अशोक कुमार नेताम

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