एक पाषाण और एक चंचल पवन.
दोनों ही लगते हैं मुझे अपने.
दोनों से है मुझे बराबर स्नेह.
पवन दिखती नहीं.
न ही उसे छुआ जा सकता.
किया जा सकता है मात्र उसका अनुभव.
शरीर को छूते ही उसके,होती है अनुभूति,
एक दिव्य आनन्द की.
पाषाण है श्याम-शुष्क-कठोर.
किंतु कर सकता हूँ मैं स्पर्श,
उसे हाथों की अंगुलियों से.
दुख की घड़ी में उस पर शीश टिकाकर,
और रोकर,विस्मृत कर देता हूँ मैं,
अपने समस्त दुख सदा के लिए.
है हृदय भूमि मेरी,
पवित्र प्रेम पीयूष से सिंचित.
सब कुछ पाया मैंने,
किस विषय पर रहूँ चिंतित.
दोनों ही का प्रेम,
हृदय के भीतर बसा है.
मेरे पिता(ईश्वर) ही समझ सकते हैं,
जो अब मेरी दशा है.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
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