सदियों से वन के वासी हैं.
कहलाते आदिवासी हैं.
रहते हम हरे-भरे वन में.
छल-कपट नहीं मन में.
अभावों में हँसके जीते हैं.
नदियों का मीठा जल पीते हैं.
धान मंडिया-कोदो बोते हैं.
परिणाम पर कभी नहीं रोते हैं.
संग्रह करते हम महू-सरगी-चार.
पशु-पक्षियों से हमें बहुत है प्यार.
गाँव में देवी-देवताओं का वास.
करते जो सब दुखों का नाश.
नाचते माँदर,गाते रिला गीत.
खुशी से जीवन जाता है बीत.
अनोखी हमारी हर परम्परा है.
हमारे श्रम से खिली वसुन्धरा है.
क्यों भलासमस्या कोई आएगी विकट.
जब हम हैं प्रकृति के इतने निकट.
(तस्वीर:- इन्टरनेट से)
✍अशोक नेताम
केरावाही(कोण्डागाँव)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें