शनिवार, 11 अगस्त 2018

||सावन में जेठ ||

भीषण अग्नि से,झुलस रहा सबका रूप.
है तो ये सावन का महीना,पर जेठ की है धूप.

सूखा ताल,मेंढ़क प्यासे-प्यासी मीन.
बरस रहा अनल,तप रही ज़मीन.

साल वनों के विशाल वृक्ष खड़े हैं बिलकुल मौन.
पंछी भी तरसें जल को आखिर गीत सुनाए कौन?

हुआ मिलना दूभर पशुओं को,भरपेट चारा.
थोड़ी दूर चलके छाँव ढूँढता पथिक बेचारा.

अंतिम साँसे गिन रही,खेत में खड़ी फसल.
पोखर नदी-नालों में,बूँद भर भी नहीं जल.

बैठा है माथ पर हाथ रखे कृषक,सशंकित मन.
"हे ईश्वर!क्या अब फाँके में ही कटेगा शेष जीवन?"

✍अशोक कुमार नेताम
    केरावाही(कोण्डागाँव)

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