प्रभात काल एक यायावर.
निकल पड़ा अपनी यात्रा पर.
चारों ओर विटप दिख रहे,
लिपटे घने कोहरे के साए से.
शान्त-सुप्त नींद से जागे,
स्थिर खड़े अलसाए से.
रक्तिम नभ की पृष्ठभूमि से होकर,
खग उड़ चले जाने किस ओर.
मन में हैं उनके उम्मीदें नई,
कहते सबसे जागो,हुई अब भोर.
चमकते चांदी से,
खेत की मेड़ पर खड़े कास के फूल.
ओस गिर रहा धीरे-धीरे,
लगता गोधूलि बेला में,उड़ रही हो धूल.
सौंप जग का राज्य,दिवस को,
निशा गई अब सोने को.
सप्तरंगी रथ में सवार हो,
हुआ रवि अब उदित होने को.
नीला नभ,देखो पिघला.
प्राची से,सूरज निकला.
प्रकाश से नहा उठा,धरा-आसमान.
हो गए सुनहरे हरे घास-खेतों के धान.
तुहिनबिंदुयुक्त हरित दूब.
रवि रश्मियों संग निखरा खूब.
दुख के काँटे सहकर ही जीवन में,
खुशियों का सुमन खिलता है.
है बड़भागी वो जिसे प्रात:काल,
प्रकृति दर्शन का सौभाग्य मिलता है.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
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