छूट गया मेरा गाँव.
शहर में पड़े पाँव.
गाँव में बचा भोजन,
गाय के आगे डालते हैं.
पर लोग यहाँ गाय नहीं,
बल्कि कुत्ते पालते हैं.
और अपना बासी खाना,
गंदे नालियों में डालते हैं.
वहाँ सभी सवेरे उठकर,
नहा-धोकर तैयार हो जाते हैं.
और बहुत जल्दी ही,
अपने काम पर निकल जाते हैं.
यहाँ रहता नहीं ठिकाना जल का.
बस बैठे इंतजार करो नल का.
बिछड़के अपनों से,
सच कहूँ मैं तो रो दिया.
शायद कुछ पाने के लिए,
मैंने अपना सब कुछ खो दिया.
अशोक नेताम "बस्तरिया"
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