शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

||द्रौपदी का श्राप||

कहा द्रौपदी ने,
सभासदों से क्रुद्ध होकर.
धिक्कार है,
तुम सबके मनुज होने पर.

आज नारी दाँव पर?
क्या समझा तुमने इसे एक वस्तुमात्र.
या फिर ये हेै,
माँस-अस्थि-रक्त-चर्मयुक्त केवल गात्र.

कभी धर्मपुरी हस्तिना की,
फिरती थी तिहुँलोक दुहाई.
आज ऐसी दुर्दशा कि,
नहीं रक्षित,भगिनी-सुता-माई.

व्यर्थ छाती पीटते हो तुम,
कहते हो स्वयं को वीर.
ये कैसा है पौरुष कि,
हरे कोई,किसी अबला के चीर.

तुम सबने पार की,
आज मर्यादा की रेखा है.
कि मूक बनकर स्त्री को,
रोते-बिलखते देखा है.

स्मरण रहे,जब-जब किसी ने,
स्त्री की आँचल को छुआ है.
तब-तब इस संसार में,
कोई महासंग्राम हुआ है.

एक संतप्त नारी का श्राप है ये,
कि एक दिन,समय ऐसा खेल रचेगा.
देख अन्याय जो मौन रहे हैं आज,
उनमें से कोई भी जीवित नहीं बचेगा.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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