कहा अलविदा,
मैंने घर से निकलते.
बोले पिताजी,
मुझसे चलते-चलते.
भले ही कल तक थे,
मुझसे बड़े कद में.
और आज हो गए हो,
बड़े मुझसे तुम पद में.
लेकिन बन जाए तू,
कितना ही बड़ा.
पर याद रखना,कि किया किन्होंने तुझे,
अपने इन पैरों पे खड़ा.
कभी महान होने का,
मन में झूठे विचार आए.
यदि अहंकार का,
कोई भी अंश,तुझे छू जाए.
तो देख लेना,
अपनी नजरें उठाकर,
बैलाडीला की पहाड़ियों के,
शीर्ष पर ,
उन सूखे वृक्षों को,
जो वहाँ पर कई सदियों से खड़े हैं.
बड़ी गहराई तक मिट्टी में,
जमी जिनकी जडें हैं.
दिखते छोटे,हैं विशाल,पर
कहते नहीं कभी वो,कि हम बड़े हैं.
सदा सादगी का ही,
तुम पट ओढ़ना,
हो जाओ कितने ही ऊँचे,
पर कभी,अपनी जमीन मत छोड़ना.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
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