गुरुवार, 7 सितंबर 2017

|| रहते हम गाँव में||

हम रहते भले गाँव में.
चप्पल तक नहीं पाँव में.
वस्त्रहीन भले हो तन.
पर मलिन नहीं,अपना मन.
न आया दूसरों से जलना.
औरों से छले जाते,न जानें हम,किसी को छलना.
बस अपनी कमाई खाते हैं.
सुख हो,दुख हो,बस मुस्कुराते हैं.

अशोक नेताम "बस्तरिया"

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