शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

||भारत का वास्तविक चित्र||

भले आदिम युग से,
उन्नति कर रहा मानव.
भौतिक विकास तो हो रहा पर,
बन रहा मन उसका दानव.
पर धन-नार देख,
हो जाती उसकी नीयत बुरी.
मुँह से कहता राम-राम,
पर बगल में रखता है छुरी.
दो दिन का जीवन है,
क्या भी करेंगे जीकर.
सड़कों पे लुढ़के रहते हैं,
कई लोग शराब पीकर.
कोई दूसरा जब,
डूबा होता है गहरे दुख में.
खिल जाती है खुशी,
तब उसके मुख में.
कम वस्त्र पहनने के,
हम नए कीर्तिमान गढ़ रहे.
सभ्य हुए थे लेकिन,
फिर नग्नता की ओर बढ़ रहे.
तन-मन को पवित्र करने,
जिस गंगा नदी में नहाते हैं.
पर जाते-जाते वो उसी को,
अपवित्र कर जाते हैं.
मंदिरों की पाषाण प्रतिमाओं पर,
रुपये पैसे,सोने-चाँदी बरसते हैं.
वहीं बाहर बैठे भिखारी,
एक-एक दाने को तरसते हैं.
दुनिया आगे निकल गई,
करके हमारी नकल.
हम जा रहे गर्त में,
घास चरने गई है अकल.
सुनने में तो ये,
लगता है बड़ा विचित्र .
पर तुम तनिक भी,
आश्चर्य न करो मेरे मित्र.
क्योंके यही तो है,
मेरे भारत का वास्तविक चित्र.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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