शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

||ग्राम रसिक मेरा मन||

ग्रामरसिक मन मेरा,
शहर से दूर भागता है.
निश्चिंत सोने वाला,
अब रात भर जागता है.
इक दिन तो,
मन में जन्मेगी आशा.
उस दिन ही,
दूर होगी मेरी निराशा.
किसी से नहीं ये है,
मेरा बस खुद से संघर्ष.
जिस रोज जीत सका मैं निज को,
होगा मुझे बहुत ही हर्ष.

अशोक नेताम "बस्तरिया"

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