शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

||वैदेही वेदना||

समस्या है,
बड़ी विकट.
प्रियतम नहीं,
मेरे निकट.

रह-रहकर होता,
उनका स्मरण.
दुख द्विगुणित,
हो रहा प्रतिक्षण.

न सुहाता मुझे,
अशोक उपवन.
केवल प्रभु दर्शन को,
नित तरसे मन.

जब से बिछड़े स्वामी,
हम-तुम दोनों वन में.
जैसे प्राण ही न रहा,
तब से,मेरे तन में.

सुशोभित विविध सुमन,
हरित पत्र,वृक्ष-लतिका.
हैं व्यर्थ सब यदि,
संग न हो स्नेह पति का.

ओह!किया व्यर्थ मैंने,
तुम्हारे बल पर संदेह.
आह गल क्यूँ न गई,
तत्क्षण मेरी देह.

पति पर अविश्वास का,
फल मैं आज रही हूँ भोग.
मैं काठ जल रही प्रतिपल,
है अग्नि प्रिय का वियोग.

भले हो गया हो मुझसे,
कभी-कोई कतिपय भूल.
भूलकर सब दोष-दुर्गुण,
मिटाइए मेरे मन के शूल.

करती विनती वैदेही मैं ,
जोड़कर अपने दोनों हाथ.
नाथ मेरे कृपा करके,
कर दो मुझे फिर से सनाथ.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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