औरों की तरह,
मैं भी चाहता था उसे.
बड़ी तीव्र इच्छा थी,
उसे पाने की.
कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा उसे.
मन्दिरों के चक्कर काटे.
देवों के आगे,
सिर झुकाया.
कि प्राप्त हो जाए,
वो मुझे एक बार.
फिर आनन्द से,
भर जाएगा मेरा संसार.
पर भटकना मेरा,
उसकी खोज में यत्र-तत्र,
नहीं हुआ सार्थक.
किन्तु जगत को विस्मृत कर,
नेत्र बन्द करके और साधकर-
चञ्चल मन अश्व को.
जैसे ही झाँका,मैंने अपने भीतर.
मुझे वो(शान्ति)मिल गई.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
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