बुधवार, 27 फ़रवरी 2019

||ये कैसी जन्नत?||

उस भयानक धमाके के बाद,
मैं जहाँ पहुँचा,
वहाँ रौशनी नहीं थी.
बिल्कुल अंधेरा था.
"उन्होंने" जन्नत का
जो पता बताया था.
ये तो कोई और ही जगह थी,
जहाँ मैं आया था.
यहाँ न सोने-चाँदी की इमारतें थी,
और न ही सोने के पेड़ थे.
पानी,दूध,शहद और शराब की नदियाँ भी,
नहीं बह रही थीं यहाँ,
यहाँ खूबसूरत आँखों वाली कोई हूर भी नहीं थी.
न कस्तूरी की खुश्बू,
न कोई सुरीली तान सुनाई दे रही थी यहाँ.
यहाँ बह रही थी नदियाँ,
अपनों के ही खून की.
माँ बेहोश थीं अपने लाल के,
लाल लहू से सने जिस्म देखकर.
बाप का कलेजा भी छलनी था,
पर था वो मौन.
सोचता अब हमारा जहाँ में
रह गया आखिर कौन?
बहनें भी रो रही थीं,
अपने भाई से लिपटकर.
पत्नियों के माथे से,
मिटाए जा रहे थे सिंदूर,
तोड़ी जा रही थीं,
कलियों सी नाजुक हाथों की चूड़ियाँ.
ज़िंदगी और मौत से अन्जान,
उन मासूमों को ये पता भी न था,
के उनके सर से पिता का साया,
उठ गया था,हमेशा-हमेशा के लिए.
देखकर ऐसे गमगीन नज़ारे,
मेरी भी आँखें नम हैं.
सच इसके बदले मुझे,
जो भी सज़ा मिले कम है.
नासमझ था मैं,
अपना-पराया समझ में नहीं आया.
अब सोचूँ अपनों को दर्द और आँसू देके,
मैंने कौन सा जन्नत पाया?

✍ए.के. नेताम

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