माँ की ममता को,
मूरख मैंने नहीं जाना.
छोड़ माँ का द्वार मैंने,
अलग बनाया आशियाना.
अब छूट गया मिलना,
मां के हाथों से बना खाना.
शायद इसीलिए मैं आजकल,
जाता हूँ रोज दवाखाना.
भले कर ले दान लाखों करोड़ों का,
व्यर्थ है तेरा पुण्य कमाना.
ठुकराके उन्हें कर ले कितने भी सत्कर्म,
मिलेगा नहीं तुझे नरक में भी,कोई ठिकाना.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
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