रविवार, 27 अगस्त 2017

||हरित वन मनभावन||

मनभावन हरित वन बीच,
बह रहा एक निर्झर.
कठोर पाषाणों से टकराता,
शब्द करता झर-झर.

तट पर खिले हैं,
विविधरंगी-सुगंधित सुमन.
सुन मधुर मधुकर की गुंजार,
प्रफुल्लित होता तन-मन.

प्रतिध्वनि झरने की,
सघन वन में गूँज रही.
सुन्दरता से आल्हादित कोयल,
मीठे स्वर में कूज रही.

सतत् सेवा में रत,
साल वृक्ष खड़े हैं तनकर.
रवि रश्मियाँ आ रहीं धरा तक,
उनके मध्य से छनकर.

सूरज की किरणें जगमग,
स्वच्छ जल में झिलमाती हैं.
ऊँचे पेड़ों से लिपटी लताएँ,
सुन्दर शोभा पाती हैं.

कहते वृक्ष-"ओ पथिक!
हर दिन तो तुम,करते हो काम.
आओ मेरी छाँव में आज,
थोड़ी देर कर लो विश्राम.

तुम आओ निकट मेरे,
अपने सब अवगुण भूलकर.
मायावी झूले में,झूल चुके तुम,
देखो प्राकृतिक झूले में झूलकर."

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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