बुधवार, 2 अगस्त 2017

||मानव आलस त्याग||

मानव आलस्य त्याग.
नित्य प्रात:काल जाग.

निज नयनद्वय बंद कर.
निकल मन की यात्रा पर.

सुन झींगुर की ध्वनि,
घड़ी की टिक टिक,
दूर से आती स्वान की भौं-भौं,
पक्षियों का कलरव.
स्त्रियों के आंगन बुहारने,
और बर्तनादि धोने के शब्द.

फिर बाहर से भीतर की ओर,
मोड़ अपना मन.
रोक श्वास तनिक,स्पष्ट सुन,
ह्रदय का स्पंदन.

पाओगे तुम कि जिसे,
ढूंढते हो तुम यहां-वहां.
सुख-शांति,प्रेम-सत्य,
सब कुछ ही तो,है यहां.

धीरे-धीरे जाओ तुम,
और भी अधिक अंदर.
जान जाओगे कि औरों में,
और तुझ में,नहीं है कोई अंतर.

देखो कि है तुम्हारे भीतर,
ये कौन सा दिव्य आकार.
हो जाएगा जीवन सार्थक,
यदि हो गए,उनसे एकाकार.

सोया रहेगा कब तक,
ओ मनुज मूर्ख-अभागे.
है सौभाग्यशाली वो,
जो नित्य ऊषाकाल जागे.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
   कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

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