गुरुवार, 17 अगस्त 2017

||वो गलियों में खो गई||

खड़ी थी वह,
विशाल वट वृक्ष के नीचे.
बारिश में मैं भी खड़ा था,
कुछ दूर,उसके पीछे.
खुला बदन था उसका,
न छाता न  रेनकोट.
था एक मात्र सहारा,
वही,पेड़ की ओट.
देखती थी मुझे ऐसे,
जैसे कुछ भाँप रही थी.
शायद भय-ठंड के मारे,
वो कांप रही थी.
मैंने बड़े ही प्यार से,
उस हूर को देखा.
न थी वो जया,हेमा,
न थी वो रेखा.
कुछ ही देर के बाद,
बारिश बंद हो गई.
वो दुम हिलाते-भौ-भौं करते,
गलियों में खो गई.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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