बुधवार, 23 अगस्त 2017

||हम लकीर के फकीर||

मेरा वो स्वीडिश फ्रेंड जॉन,
कई दिनों बाद मिला.
उसे देखते ही,
मेरा मन खुशी से खिला.

मिलते ही बोला-
"अरे अशोक पगले.
आज भी वैसे ही हो,
तुम बिल्कुल नहीं बदले."

मैंने कहा-"भारतीय हमेशा,
पुराने ढर्रे पर ही चलते हैं.
हमारी अकड़ कहो,या आदत,
कि हम कभी नहीं बदलते हैं."

उसने कहा-कैसे?
मैंने जवाब दिया-ऐसे.

"तुमने देखा था न कि 2010 में कैसे,
कई लोगों के शव पटरियों पर बिखरे थे.
उस साल बड़ी रेल दुर्घटनाओं में,
कम से कम 265 लोग मरे थे.

अभी कुछ दिनों पहले भी,
बिलकुल ऐसा ही हुआ था.
जब एक रेल दुर्घटना में,मौत का आंकड़ा,
23 को  छुआ था.

यूपी में 60से अधिक बच्चों की हुई मौत,
पर भारतीय बेचारे हैं बड़े अभागे.
क्योंकि ये सब होने के बाद भी,
वो सोए रहे,कहां जागे.

उसके बाद अब रायपुर में तीन बच्चे,
आक्सीजन की कमी से चल बसे.
ऐसा कोई है नहीं यहाँ जो,
इन अव्यवस्थाओं पर लगाम कसे.

वो बोला-"सही कहा पर मैंने देखा,
यहां के लोग हो गए हैं पहले से ज्यादा मोटे."
"हाँ तन फूला,पर सिकुड़ गईउनकी सोच,
ये हैं जैसे चमकते हुए सिक्के खोटे."

बोला वह-"21सदी में भी भारतीयों के,
कितने संकीर्ण विचार है.
पर सत्ता तो बदल गई,कल यूपीए थी,
आज एनडीए की  सरकार है."

मैंने कहा-"यूपीए हो या एनडीए हो,
ये कोई नई बात नहीं है.
क्योंकि सब नेताओं के खून में,
डीएनए बिल्कुल वही है."

"है अजगरी प्रवृत्ति अपनी,
हम इसे न बदलेंगे.
लकीर के फकीर,
हम उसी रास्ते पर चलेंगे."

जॉन की तो जान निकल ही गई,
मानो कोई गहरी नींद से जाग गया.
कल शाम की ही फ्लाइट पकड़ कर,
वो सीधे अपने देश स्वीडन भाग गया.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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