फसलों में,
बढ़ रहा पीलापन.
देख है व्यथित,
कृषक का मन.
रवि बरसा रहा,
जैसे तीव्र अनल.
तिजाहारिन के भी,
माथे पर पड़े बल.
धरा को झुलसाती,
ये प्रचंड धूप.
सूखी नदियाँ,
प्यासे कूप.
सूरज के भीषण ताप से,
भले धरती है जल रही.
पर नाउम्मीद नहीं कोई,
अब भी आशाएँ हैं पल रही.
प्रकृति ले रही अपनी,
कैसी कठिन परीक्षा.
बस कर्म करें हम,
फल दे,न दे,ये ईश्वर की इच्छा.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
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