समय बीत रहा किस गति से,
खयाल इसका तू कर जरा.
आएगा तुझे चेत कब?
क्या तब,जब आएगी जरा.
जिसने सुनी,
अंतरात्मा की गिरा.
वह कभी,
पापकूप में नहीं गिरा.
कर नेत्र बंद निज,
जोड़ अपने दोनों कर.
मिला जीवन जिनसे,
कभी उनका भी सिमरन कर.
तन दो दिन का,
है व्यर्थ तेरा सँवरना-सजना.
गोरी झाँक कभी अंतर में,
तेरे भीतर बैठा है,तेरा सजना.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
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