रहा सदा लापरवाह,
जान कर भी रहा अन्जाना.
जीवन के महत्व को,
मैंने कभी नहीं जाना.
जब तक मैं,
रहा जिंदा.
करता रहा,
बस परनिंदा.
बेवजह दी,
दूसरों को गाली.
किसी के दुख पर,
मैंने बजाई ताली.
औरों के आगे सदा,
गर्वभरा शीश उठाके चला.
धन खरचा व्यर्थ पर,
न किया किसी का भला.
औरों की राहों में,
कांटे ही बोता रहा.
सदा सुख की सेज पर,
मैं सोता रहा.
बस अपने लिए ही
मैं जिया.
ऐश किया मैंने,
मस्त खाया-पिया.
अपने भुजबल का,
सतत् मैं दम्भ भरता रहा.
कर्ता था कोई और,
मैं समझता,मैं ही करता रहा.
लगता रहा मुझे कि हर जगह,
बस मेरी ही तूती चलती है.
मरने के बाद मैंने जाना कि,
ये दुनिया मेरे बगैर भी चलती है.
यहां पिता ने मेरे,
मुझे धिक्कारा.
"आखिर मेरा बेटा कैसे,
निकल गया नाकारा.
तुझे करने को सत्कर्म,
मैंने संसार में भेजा.
पर तूने बेकार के कामों में,
खपाया अपना भेजा."
बुरे कर्मों का कर त्याग,
कुछ अच्छे कर्म किया होता.
जीवन होता सार्थक यदि,
काश मैं औरों के लिए भी जिया होता.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
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