शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

||अजीब जमाना है!||

क्या आपने कभी भूकंप के आने का अनुभव किया है? क्या आपने खेत के अंदर अपनी मोटरसाइकिल दौड़ाई है? शायद नहीं.

परसों मैं अपनी बाई के साथ बाईक से बाई रूट कोंडागाँव हॉस्पिटल जा रहा था.हम लोग शहर के हृदय स्थल में थे. मेरे कान में हमेशा की तरह इयरफोन लगा हुआ था.(इससे हम अंतर्मुखी बनते हैं.बाहरी आवाज की दुनिया से हमारा संपर्क कट जाता है.और लोग कहते हैं कि ऐसे में शीघ्र ईश्वरप्राप्ति होती है.)

तभी मेरी पत्नी अचानक चिल्लाई-"गाड़ी रोको.गाड़ी रोको."
मैं तो बहरा बना हुआ था.उसने फिर चिल्लाया-"गाड़ी रोक न  रोगहा(छत्तीसगढ़ी नारियों की फेमस गाली)."
अब मेरे कान में कुछ जूँ रेंगा.मैंने झट से ब्रेक मारा,दोनों बाइक सहित गिरते-गिरते बचे.सड़क के दोनों ओर गाड़ियों की लाइनें लग गई.
मैंने पूछा "क्या हुआ?"
उन्होंने कहा-"सॉरी.मैं तो समझ बैठी थी कि जैसे भूकंप आ गया."

मैंने उनके  अंदाजा लगाने के हुनर को माथा पीटकर सलाम किया.

वैसे बरसात में शहरों की सड़कों पर ऐसे-ऐसे गड्ढे निकल आते हैं.जिन पर से गुजरते हुए आपको खेत के अंदर गाड़ी चलाने का भ्रम होता है और धरती डोलती हुई महसूस होती है.और उन गड्ढों में भरे पवित्र जल के छींटे जब आपके कपड़ों या शरीर के कुछ हिस्सों को छू जाए,तो आप को गंगा स्नान का पुण्य फल प्राप्त होता है.

हाल ही में  इसी नगर के सरदार पेट्रोल पंप के निकट बने डिवाइडर पर रेलिंग तोड़ते हुए,एक बस चढ़ गई थी.
लोगों ने इसके  दुर्लभ फोटो शेयर करके बहुत नाम कमाया,और भूल गए.
पर डिवाइडर के बीचों-बीच बनी स्ट्रीट लाइट के टेढ़े-मेढ़े खंबे आज भी उसी तरह उपेक्षित पड़े हैं,जैसे आज-कल लोग वृद्धावस्था में अपने मां बाप को छोड़ देते हैं.रात अमावस की रात प्रतीत होती है, और दुर्घटनाओं की  आशा बनी रहती है.(फिलहाल तो अभी तक नहीं हुई है )खैर इस विषय में ज्यादा सोचने या बात करने की आवश्यकता नहीं है.क्योंकि अभी तो हमारे हाथ पैर साबुत हैं न?जब कोई दुर्घटना हो जाएगी तब देखा जाएगा.
लेटलतीफी तो हमारी भारतीय परंपरा है.हम मरीज को इतनी देरी से अस्पताल पहुँचाते हैं कि हॉस्पिटल में एडमिट करने के कुछ देर बाद डॉक्टर कह देता है-"ओह!आई एम सॉरी."
शरीर तो एक दिन मिटने ही वाला है फिर इसकी देखभाल भला क्यों की जाए.

आज दुनिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिनकी कथनी और करनी अलग हो.माया-मोह का त्याग करने की बात करने वाले दिन रात माया से लिपटे रहते हैं.
कुछ दिन पहले सरकारी शराब दुकान के पास से गुजरा.एक महाशय चेहरे पर स्कार्फ बांध कर शराब ले रहे थे.किसी पुरुष के चेहरे पर नकाब देखकर मुझे आश्चर्य हुआ क्योंकि यह तो नारियों की परंपरा है.
पर मैं उसे पहचान गया.
ये वही महापुरुष थे जो कुछ दिनों पहले एक मंच पर चढ़कर लोगों को नशा मुक्ति का पाठ पढ़ा रहे थे.
जब मैंने उनकी नाम लिया तो वे चौंक पड़े.

उन्होंने सफाई दी-"दरअसल मेरे पिताजी की तबीयत बहुत बिगड़ गई है,और उन्होंने इसकी डिमांड की है. इसलिए उनके हित के लिए ये व्हिस्की खरीद कर ले जा रहा हूं."
मैंने भी कह दिया-"यदि हमारे देश में  सभी लोग आप जैसे पितृभक्त हो जाएँ न तो देश तो विकास पथ पर सरपट दौड़ पड़ेगा."

हर्षातिरेक होकर मैंने उस श्रवण कुमार के पैर छू लिए.

क्या आप जानते हैं कि ज्ञान क्यों अर्जित किया जाता है?इसलिए कि दूसरों के आगे स्वयं के ज्ञानी होने का दंभ भरा जाए. स्वयं को दूसरों  से श्रेष्ठ साबित किया जा सके.इसलिए कई जीनिसय व्यक्ति ज्ञान तो बाँटते हैं,किंतु उस रास्ते पर वे खुद कभी नहीं चलते.

शहर में रहने वाले अधिकारियों को गांवों की गंदगियाँ बहुत जल्दी नजर आ जाती है.गाँवों को ओ डी एफ घोषित कर सफाई और स्वच्छता पर जोर दिया जा रहा है,पर शहर में कचरों के अंबार,बदबूदार नालियों और गंदे सार्वजनिक प्रसाधन स्थलों पर उनकी दृष्टि ही नहीं जाती. कहीं आपने उन्हें देख लिया  तो फिर आपको दिनभर उपवास ही रखना पड़ेगा.किसी को अपनी बुराई कहाँ नजर आती है, हमें तो बस दूसरों के दोषों को देखने में ही आनंद मिलता है.

हम क्या करें?
कुछ नहीं बस भगवान नीलकण्ठ पर विश्वास करके कठिनाइयों के कठिन गरल को अमृत मान कर पीते रहें.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
   कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

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