मुझसे हो गई है शायद,
कोई न कोई तो खता.
कि छोड़ कर चले गए हैं बादल,
नहीं उनका कोई अता-पता.
माथे पर उभर आई मेरी,
कई चिंता की लकीर.
सोचकर कि,हाल क्या होगा मेरा,
मैं तो पहले से ही फकीर.
क्या इस बार भी मेरा खेत,
रह जाएगा सूखा.
इस बार भी करना पड़ेगा अधिक श्रम,
रह कर हमें भूखा?
मास है सावन का और,
धरती रही है जल.
हम बैठे हैं माथ पकड़कर,
मिले कहाँ से जल.
जितना बोया है कम से कम,
उतना ही मिल जाता.
सूखे से मुरझाया मन,
थोड़ा तो खिल जाता.
हे मेघदेव तुम करो मुझ पर,
थोड़ी तो रहम.
काश्तकारी के बिना जीने की कल्पना,
नहीं कर सकते हम.
न हुई यदि फसल तो,
परिजनों को मैं क्या खिलाऊंगा.
क्या अच्छा लगेगा तुम्हें जब,
मैं सपरिवार तुम्हारे पास आऊंगा.
✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)
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