रविवार, 11 जून 2017

||दुर्भाग्य का मारा बस्तर का एक उपेक्षित सितारा:चेंदरु||

90 के दशक में दूरदर्शन पर  "द जंगल बुक" नाम के कार्टून सीरियल में मोगली और जंगली जानवरों की दोस्ती काफी लोकप्रिय हुई थी."जंगल-जंगल बात चली है,पता चला है"सुनते ही सब लोग TV की ओर दौड़ पड़ते थे.
पर "बस्तर के मोगली" की ये कहानी किसी रील की नहीं है बल्कि रियल की है.

1950 का दशक.स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत लगभग संभलने की कोशिश कर रहा था.चारों ओर विकास की ही बातें हो रही थी.पर शहरी चकाचौंध और कोलाहल से दूर,बस्तर के आदिवासी आज भी अपने में ही धुन में मस्त रहते थे.

ये आदिवासी दिन भर अपने शिकार की तलाश में जंगलों में भटकतेे थे.हर दिन शाम का भोजन करके बच्चे,जवान,बूढ़े,औरतें सीधे "घोटुल" की ओर दौड़ पड़ते थे.जहाँ ये माँदर की थाप पर एक दूसरे के कमर में हाथ डाले देर रात तक मधुर रिलो पाटा(गीत) के साथ नृत्य का आनंद लेते थे और दिन भर की सारी थकान भूल जाते थे.साथ ही ये "घोटुल" में भावी जीवन का महत्वपूर्ण ज्ञान भी प्राप्त करते थे.
कितना सीधा-सरल और निश्छल था इनका जीवन.न बीते हुए कल का इन्हें पश्चाताप था,और न ही आने वाली कल की कोई चिंता.

ये सच्ची कहानी उसी समय की है.

बस्तर के नारायणपुर जिले के ओरछा  ब्लाक में,गड़ बेंगाल नाम के एक छोटे से गांव में 6-7 साल का एक लड़का चेंदरु अपने दादा जी को शिकार से वापस आते देखकर खुशी से उछल पड़ा.
उसके पिताजी और दादाजी दोनों मँझे हुए शिकारी थे.हर दिन की तरह आज भी उसके दादाजी एक बड़े से थैले में कुछ लेकर घर लौटे थे.जब बच्चे ने उस बड़े से थैले में झांक कर देखा तो उसकी खुशी का ठिकाना ही न रहा.आज उसके दादाजी ने उसके पोते के लिए वो अनोखा और बेशकीमती उपहार लाया था जैसा उपहार शायद दुनिया के किसी भी इनसान ने अपने पोते को नहीं दिया होगा.
यह बेशकीमती उपहार था-एक शेर का बच्चा.

वह नन्हा सा बाघ चेंदरु का साथी बन गया.खाते-पीते,सोते-जागते दोनों का साथ कभी नहीं छूटता था.चेंदरु ने उसका नाम रखा "टेम्बू".चेंदरु के कहीं जाने पर "टेम्बू" भी उसके आगे-पीछे दुम हिलाते हुए चल पड़ता था.एक बाघ और इंसान की दोस्ती लोगों के लिए सचमुच कम आश्चर्य की बात नहीं थी.चेंदरु की उम्र 12-13 वर्ष हो गई,बाघ अब व्यस्क हो गया था.

बस्तर की कला,संस्कृति,सभ्यता और नैसर्गिक सौंदर्य तो शुरु से ही देशी-विदेशी सैलानियों के लिए आश्चर्य,उत्सुकता और आकर्षण का केंद्र रहा है.जब कई विदेशी पर्यटक-लेखक बस्तर आए तो उनके साथ ही चेंदरु और बाघ के दोस्ती की अविश्वसनीय कहानी सात समुंदर पार,विदेशों तक पहुंच गई.

यह खबर जब ऑस्कर अवार्ड विनर,स्वीडिश फिल्म निर्माता  अर्ने सक्सडॉर्फ के कानों तक पहुंची तो वे बिना देरी किए अपने साजो-सामान सहित बस्तर की सुरम्य वादियों में पहुंच गए.

और अगले कुछ सालों तक अर्ने सेक्सडॉर्फ के निर्देशन में बस्तर की नदियों,पहाड़ों,घाटियों और हरे-भरे साल वनों के बीच चेंदरू और बाघ के साथ फिल्म शूट की गई.आर्ने सक्सडॉर्फ की इस स्वीडिश फिल्म में लगभग 10 बाघ और आधा दर्जन तेंदुओं का उपयोग किया गया था और प्रसिद्ध सितार वादक रविशंकर ने इस फिल्म में संगीत दिया था.

पूरे शूटिंग के दौरान चेंदरू के एक दिन की कमाई थी मात्र 2 रुपये.

शूटिंग पूरी होने के बाद सन 1957 में फिल्म "एन द जंगल सागा" के नाम से प्रदर्शित हुई.
यह फिल्म देश-विदेश में बहुत चर्चित हुई.लोगों को विश्वास ही नहीं हुआ कि एक आदमी की मित्रता एक बाघ से भी हो सकती है.1958 के "कान फिल्म फेस्टिवल" में भी यह फिल्म प्रदर्शित की गई.

सबकी जुबान पर एक ही नाम था चेंदरू.सारी दुनिया ये जानना-देखना चाहती थी कि आखिर वो अद्भुत बालक कौन है जो एक बाघ का मित्र है,जो उसके साथ खेला करता है,उसकी सवारी करता है.फलस्वरूप चेंदरु को,जो कभी अपने गांव से बाहर निकला ही नहीं था,स्वीडन जाने का मौका मिला.

चेंदरु अगले 1 साल तक स्वीडन में ही आर्ने सक्सडॉर्फ  के घर में रहा. उन्हें देखने के लिए लोगों की भारी भीड़ इकट्ठी हो जाती थी. लोग उन्हें सिर-आंखों पर बिठा लेते थे.सब उन्हें  छू-छूकर कर देखते थे.शायद वो जानना चाहते थे कि शेर के साथ दोस्ती करने वाला यह साधारण सा किशोर आखिर किस फौलाद का बना है?
BBC की खबर के अनुसार सक्सडॉर्फ दंपत्ति उन्हें गोद लेना चाहते थे.पर दोनों के तलाक के बाद यह सम्भव नहीं हो सका.

जब स्वीडन में साल भर रहने के बाद चेंदरु अपने देश वापस लौटा तब तत्कालीन प्रधानमंत्री ने चेंदरु से मिलकर कहा कि वह आगे गांव जा कर पढ़ाई करे,उसे कोई न कोई नौकरी जरुर मिल जाएगी.चेंदरु की आंखें अपने जन्म भूमि बस्तर से मिलने को बेताब थी.पूरे साल भर बाद अपनी बस्तर भूमि और अपने परिजनों को देखकर उसकी मासूम आंखें छलक आईं.

चेंदरु ने अपने पिता से पढ़ने की इच्छा जताई.
पर उसके पिताजी ने कहा कि यदि तुम पढ़ाई करोगे तो घर में काम कौन करेगा?तुमसे साल भर बिछड़ने का दर्द क्या कम था? और यदि पढ़-लिखकर तुम्हें कोई नौकरी मिल गई है तो हो सकता है कि तुम गांव छोड़कर हमेशा-हमेशा के लिए चले जाओगे.
अपने पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर चेंदरु जीवन भर अनपढ़ ही रहा. वह घर पर ही माता-पिता की मदद करने लगा. समय बीतता गया और एक दिन उसका प्यारा सा साथी "टेंबू" उसे सदा-सदा के लिए छोड़ कर चला गया.अपने प्यारे से साथी की रिक्तता को उसने अपनी पत्नी के रुप में भर ली.पर अब वह केवल गुमनामी के अँधेरे में जीवन जीने लगा.दुनिया भर में रातोंरात अपने काम से प्रसिद्धि का लोहा मनवाकर बस्तर को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाने वाले इस सितारे को स्वार्थी दुनिया ने बहुत जल्द ही भुला दिया.

चेंदरु जीवन भर अपनी उपेक्षा से दुखी रहा.वह विदेशी पर्यटकों को देखते ही छुप जाता था.उसके साथ बहुत बड़ा अन्याय हुआ.शासन-प्रशासन के किसी अधिकारी-कर्मचारी ने भी कभी उसकी कोई सुध नहीं ली.और इस तरह उसकी वास्तविक कहानी एक काल्पनिक कहानी बनकर रह गई.कभी-कभार कोई पत्रकार या साहित्यकार उनसे मिलने जरुर आया करते थे.

2013 में चेंदरु के बीमार रहने की खबरें अखबारों में आती रहीं.पर इससे पहले कि सरकार उसकी कोई खोज-खबर लेता,बस्तर के इस आदिवासी रियल "टाइगर ब्वाय" ने चुपचाप ही 18 सितम्बर 2013 को इस मतलबी दुनिया को सदा सदा के लिए अलविदा कह दिया.
अफसोस कि देश-दुनिया में बस्तर, छत्तीसगढ़ और पूरे देश का नाम रोशन करने वाले चेंदरु की सच्ची कहानी किसी पाठ्य पुस्तक में शामिल तक नहीं की गई.

(यह आलेख इंटरनेट से उपलब्ध स्रोतों के आधार पर तैयार की गई है.कोडागांव के साहित्यकार श्री हरिहर वैष्णव जी का लेख पढ़ा,बी बी सी हिन्दी की खबर पढ़ी साथ ही यू ट्यूब पर RSTV की प्रस्तुति "चला गया चेंदरु" देखा व उनके आधार पर ये सत्य कथा लिखने की कोशिश की है.किसी भी तरह की त्रुटि के लिए खेद है.)

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
📞9407914158

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