मंगलवार, 27 जून 2017

||न जानूँ,निज हित-अहित||

मैं अज्ञानी-अविवेकी,
न जानूँ,किसमें है मेरा हित.
जो मन में आए,माँग लेता हूँ,
हाथ जोड़कर मैं तुमसे नित.
हाँ!मेरे पाषाण हृदय में,
है तुम्हारा ही नाम अंकित.
तुम्हारी छाँव है,सदा मुझ पर,
फिर जाने किस बात से,हूँ मैं आशंकित.
कोई बात नहीं,मिले मुझे विजय श्री,
या हो जाऊँ मैं पराजित.
पर देना मुझे वही,मेरे ईश्वर,
कि जिसमें मेरा हित,हो निहित.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
📞9407914158

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