रविवार, 24 दिसंबर 2017

||समय का खेल||

एक बालक
खड़ा हो,देख रहा अनवरत.
खिलौने की दुकान पर सजे,
रंग-बिरंगे खिलौनों को अपलक.
रेशमी सलवार पहने,
हँसती-मुस्कुराती गुड़िया.
छुक-छुक कर दौड़ने को,
तैयार हो जैसे रेलगाड़ी.
ट्रक-ट्रैक्टर भी रंग-बिरंगे
सजे हैं दुकान पर.
जंगल से ही आए हैं शायद अभी-अभी,
बंदर-भालू-हाथी-खरगोश.
और भी खिलौने कई तरह के खिलौनों से
सजा है दुकान.

वो बालक,
है बिल्कुल निर्धन.
सुमन सरीखा कोमल,
है उसका मन.

खिलौने खरीदने की,
है उसकी आस.
पर पर्याप्त पैसे नहीं है,
उसके पास.

वो खिलौने खरीदे,
तो खरीदे कैसे?
हैं उनके पास,
मात्र बीस पैसे.

एक ट्रैक्टर की ओर इशारा करके, बड़ी ही आशा-संकोच के साथ पूछा उसने,"ये कितने रुपये की है?
"पाँच रुपये" सुनते ही,उस मासूम के सारे स्वप्न,सारी उम्मीदें हो गईं ध्वस्त.
उसकी आशाओं का उदित होता  सूर्य,
हुआ तत्काल अस्त.

30 साल बाद....

फिर गया वो,
उसी दुकान पर बहुत सारे पैसे लेकर.
अब भी सारा दृश्य लगभग वही था.
ताकता रहा वो घंटों खिलौनों को पर खरीदा नहीं कुछ भी.
क्योंकि आज उसके साथ,
उसका बचपन नहीं था.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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