रविवार, 24 दिसंबर 2017

||यादें बचपन की||

1991 में हाइ स्कूल पुरी(काँकेर जिला) में पिताजी की प्रथम नियुक्ति भृत्य पद पर हुई.वैसे तो अपने गाँव से 100 कि.मी. की दूरी बहुत अधिक नहीं थी.लेकिन यदि कभी आपकी बस छूट गई तो दूसरे बस के लिए आपको घण्टों इन्तजार करना पड़ता था.

अपने कंधे पर संदूक लादकर पुरी के लिए निकले थे.कितना अजीब होता है न?कि व्यक्ति को
अपने उदरपूर्ति और बेहतर जीवन की प्रत्याशा में अपनों को,अपनी जन्मभूमि को ही त्यागना पड़ जाता है.वहाँ 30 रुपये के मासिक किराए पर
पिताजी ने एक छोटे सा कमरा ले लिया.
दूसरी बार जब वे गाँव आए तो वे मुझे अपने साथ पुरी ले गये.जिस रोज मैं पिताजी के साथ पुरी के लिए निकला वो दिन मुझे आज भी बहुत अच्छी तरह याद है.
एक दोनों एक ट्रक पर सवार होकर पुरी के लिए निकले थे.एक बच्चे ने पहली बार डामर से बनी लंबी-चौड़ी सड़कों,उनके दोनों ओर खड़े विशाल पेड़ों और सड़क पर दौड़ती गाड़ियों को देखा था.उसे शायद आज ज्ञात हुआ था कि उसके गाँव के बाहर भी एक विशाल-विस्तृत संसार  भी है.केशकाल की घुमावदार घाटी तो उसके लिए किसी अजूबे से कम नहीं थी.
उसके मन कई तरह के सवाल घुमड़ रहे थे.वहाँ वो किसके साथ खेलेगा?किससे बातें करेगा?क्या उसे कोई दोस्त मिलेगा भी या नहीं?प्राय: नई जगह जाने पर हर किसी के मन में इस प्रकार के कई तरह के विचार आते ही हैं.
पुरी में पहुँचकर मेरी आशंकाएँ सत्य सिद्ध हुईं.क्योंकि मैं ठहरा ठेठ हल्बीभाषी बालक और यहाँ तो केवल छत्तीसगढ़ी भाषा ही बोलचाल में प्रयुक्त होती थी.
इसलिए मैं प्राय: चुपचाप ही रहता था.
पिताजी अपनी ड्यूटी पर चले जाते थे.मैं घर के आँगन में अकेला बैठकर खेला करता था.आँगन के ठीक सामने सड़क था.सड़क के दूसरी ओर शिवजी का एक मंदिर था.जहाँ पर शिव-पार्वती-गणेश जी की आदमकद मूर्तियाँ बनाई गयी थीं.साथ ही  गीता का उपदेश देते हुए भगवान श्रीकृष्ण-अर्जुन की मूर्तियाँ थीं.पीले कनेर के पेड़ मंदिर के चारों तरफ फैले थे.हवा में कनेर के फूलों की सुगंध घुली हुई प्रतीत होती थी.एक चबूतरे पर अपने कमर पर हाथ रखे दसानन रावण को समझाते मंदोदरी की मूर्ति थी.
मैं रावण को देखकर डर जाया करता था.

पिताजी मुझे अपने साथ स्कूल भी ले जाते थे.सफेद भृत्य की वर्दी पहने सबेरे 9 बजे जाकर स्कूल की साफ-सफाई करना,हैंडपम्प से पानी भरकर काँवर से स्कूल तक लाना,होटल से जाकर नाश्ता लाना,स्टोव जलाकर चाय बनाना(हालाँकि उसने आज तक कभी चाय ही नहीं पिया)उनके इन कामों को मैं गौर से देखा करता था.
उनके कपड़े में लिखा होता था NAVKAR.मुझे दुख होता था कि नौकर(भृत्य) की वर्दियों में नौकर क्यों लिखा जाता था.(बहुत बाद में पता चला कि वो नौकर नहीं बल्कि नौकार(कपड़े के ब्रांड का नाम)था.

मुझे अपने पिताजी पर बहुत अधिक गर्व है क्योंकि उसने  मुझे स्कूल जाने से पहले गाँव में ही हिंदी और कुछ अंग्रेजी के शब्दों को अच्छी तरह से पढ़ना और लिखना सिखा दिया था.पहले वे गाँव में बच्चों को रात्रिकलीन अध्यापन का कार्य किया करते थे.
उनके स्कूल में जितने भी महापुरुषों के चित्र टँगे थे उन्होंने मुझे उन सबके नाम बताए थे -ये सुभाष चंद्र बोस,ये गाँधीजी,ये चाचा नेहरु,ये चंद्रशेखर आजाद,ये शिवाजी,ये लक्ष्मीबाई.....

वो भी क्या!दिन थे.कुछ भी नहीं था,लेकिन मानो सब कुछ था.जीवन में कितनी निश्चिन्तता और शान्ति थी.बचपन के उन  सुनहरे दिनों को जितना याद किया जाए उनता ही कम लगता है.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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