रविवार, 24 दिसंबर 2017

||कैसे बदल गया मेरा गाँव||

शहरीकरण ने,
तेजी से पसारे अपने पाँव.
यकीं नहीं होता कि अचानक,
कैसे बदल गया मेरा गाँव.

चौड़ी हो गई,
सँकरी सड़क.
वाहन चलते हैं जहाँ,
अब बेधड़क.
चौड़ीकरण की जद में,
आ गए खेतों के मेड़.
कट गए हरे-भरे,
राह किनारे खड़े पेड़.

अब देगा कौन भला,
थके हुए राहगीरों को छाँव.
यकीं नहीं होता कि अचानक,
कैसे बदल गया मेरा गाँव.

सबका जीवन,
बन रहा सहल.
निर्मित हो रहे,
ईंट-पत्थरों के महल.
भीषण गर्जन,
करते हर पल.
धूम्र उड़ाते,
दैत्याकार कल.

निज उन्नति के लिए मनुज ने,
खेला कैसा अजीब ये दाँव.
यकीं नहीं होता कि अचानक,
कैसे बदल गया मेरा गाँव.

चारों तरफ,
बस भागम भाग.
जैसे लगी हो,
जंगल में आग.
बस्ते-होमवर्क में,
पिस रहा नन्हा बचपन.
पैसे कमाई की मशीन,
बन गया मानव तन.

क्षण भर भी आराम मिले,
कहीं तो दिखती ऐसी ठाँव.
यकीं नहीं होता कि अचानक,
कैसे बदल गया मेरा गाँव.

पेड़ न दिखते कहीं,
करंज-खजूर-सल्फी के.
मोबाइल का जमाना अब,
सब हैं दीवाने सेल्फी के.
मुर्गे की बाँग अब,
सुनाई नहीं देती है.
न चूल्हे,न ही चक्कियाँ,
अब दिखाई देती हैं.

रोज सबेरे शोर मचाता,
कौआ करता काँव-काँव.
यकीं नहीं होता कि अचानक,
कैसे बदल गया मेरा गाँव.

✍ अशोक नेताम "बस्तरिया"

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