वन्दन हे काले-काले घन.
कि है धन्य तुम्हारा जीवन.
जब आकाश में घने,
बादल जा जाते हैं.
श्रमरत कृषक-मजदूर,
उनसे विश्रांति पाते हैं.
तुमसे ही तो है,
लोगों के मुख पर प्रसन्नता.
न बरसो तुम यदि,
तो पैर पसारती है विपन्नता.
कर्ज में डूबे कृषकों की,
केवल तुम हो एक आस.
मेघों की कृपा बरसेगी,
है उनको ये दृढ़ विश्वास.
हो जल से भरे,
किन्तु हो बिल्कुल हलके.
परहितार्थ आ जाते हो,
बड़ी दूर से तुम चलके.
शुष्क निर्झर भी तुमसे ही,
पाती है वर्षाजल.
खुश होकर गा उठती वो,
करती हुई कल-कल.
पाकर तुमसे केवल,
एक-एक जल बिंदु.
हो जाता तुमसे उपकृत,
नील विशाल सिंधु.
जलद,तुम्हारे भीतर,
है परहित का भाव भरा.
तुमसे ही है,
हरित-सुशोभित ये धरा.
तुम बरसते हो ताकि सबके,
दुख-दारिद्र का निवारण हो.
मेघ तुम जगवासियों की,
सुख-समृद्धि का कारण हो.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
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