सुबह का वक्त,
अलसाया जैसे सोते से,
जाग रहा है चौराहों का शहर.
रंग बिरंगी बसें खड़ी हैं,
बस स्टैंड में.
हलका छाया है कोहरा.
शीत है अपने पूरे शबाब पर.
थर-थर काँपते हैं बदन.
इधर से उधर गुजरते मुसाफिर.
सब लिपटे गर्म कपड़ों में,सिर पर बंदर टोप.
और सबके हाथ हैं उनकी जेबों के भीतर.
एक लड़का लेगों को आवाज देकर,
बेच रहा है अखबार.
दस-पन्द्रह आदमी,
बैठे हैं घेरे में एक साथ.
सेंक रहे हैं लम्बे कर,
अपने दोनों हाथ.
और बीच में,
जल रहा है मद्धम अलाव.
कुछ खड़े चाय के ठेले पर,
ले रहे गर्मागर्म चाय की चुस्कियाँ.
और कुछ खींच रहें सिगरेट के कश,
इस कोशिश में कि ठंड से थोड़ी राहत मिल जाए.
कहीं कड़कते तेल में,
तले जा रहे सुगंधित-मसालेदार,
समोसे-पकौड़े और गर्मागर्म जलेबियाँ.
कड़कड़ाती ठंड,
क्या सजा है?
नहीं भाई हर मौसम का,
अपना एक अलग ही मजा है.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
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