बसे हिय में,
तुम रहकर मौन.
न कहा कभी,
तुम हो कौन?
मेरा नहीं तुम पर,
तनिक भी अधिकार.
फिर भी आता है क्यों?
मन में तुम्हारा विचार.
तेरे स्मरण मात्र से,
मुझे सर्वस्व मिल जाता है.
मुरझाया पौध जैसे,
जल पाकर खिल जाता है.
देता मन को चरम शांति,
तुम्हारा सुनहरा रूप.
जैसे शरद ऋतु में खिली हो,
मद्धम-मखमली धूप.
कहाँ-कहाँ नहीं खोजा तुम्हें,
नाप लिया धरा-नभ का वितान.
न मिले तुम कहीं,
है अपूर्ण अब तक मेरा संधान.
तुम हो दूर मुझसे फिर भी,
छाया है मुझ पर ऐसा नशा.
कभी हम यदि मिल गए कहीं,
तो जाने कैसी होगी मेरी दशा.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
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