रविवार, 24 दिसंबर 2017

।।आशाओं के दीए।।

रात्रि का समय,
ऊपर नभ में तारे टिमटिमाते हैं।
नीचे साल वृक्षों के बीच,
एक झोपड़ी में,दीए जगमगाते हैं।

निर्जन-शांत वन,
जहां रहती है वृद्धा एक अकेली।
युवावस्था से आज तलक,
सुलझा रही है जो जीवन की पहेली।

यौवन में मां बनने से पूर्व ही,
उसके पति चल बसे।
तब बेदर्द जमाने ने,
उस पर क्या-क्या तंज न कसे?

तब से वो बुढ़िया,
नहीं रहती अपने गांव में।
जीवन कट रहा है,
हरे-भरे पेड़ों की छांव में।

उसका बेटा उसे छोड़कर,
दूर शहर में पढ़ने गया।
गरीबी दूर करने और अपना,
सुनहरा भविष्य गढ़ने गया है।

ये विश्वास के दीए हैं,
जो उसकी देहरी पर जल रहे हैं।
लोटेगा लाल मेरा एक रोज कुछ बन कर,
उसके मन में कई स्वप्न पल रहे हैं।

पर लोग कहते हैं कि बेटा उसका,
अपनी मां को विस्मृत कर गया है।
शहर की आबोहवा में रहकर,
अब उसका जमीर मर गया है।

झूठ,हिंसा,पाप के रास्ते पर,
चलने से भी वो नहीं डरता है।
कुसंगति में पड़कर वो अब,
जुआ खेलता है,नशा करता है।

पर विश्वास है एक मां को,
न बुझेंगे उनकी आशाओं के दीए।
जो जलाएं हैं उसने ,
पुत्र को सही मार्ग दिखाने के लिए।

कहती है वो सबसे यही कि,
कभी तो उसका बेटा वापस आएगा।
पर भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है,
ये तो समय ही बताएगा।

✍ अशोक नेताम "बस्तरिया"

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