रविवार, 24 दिसंबर 2017

।। मैं एक भूला पंछी।।

तय करके,
मीलों का सफर।
मैं जब-जब,
आता हूं घर।

लगता है जैसे समय के,
पंख निकल आते हैं।
सारे कीमती पल,
मानो फुर्र से उड़ जाते हैं।

इस बार जब मैं,
अपने गांव आया।
मेरे दिमाग में एक,
नया ख्याल आया।

इस बार मैंने,
एक अनोखा काम किया।
मैंने सेल निकालकर,
घड़ी को ही बंद कर दिया।

मैंने समझा कि मेरे आगे,
ईश्वर भी झुक गया।
और मेरी घड़ी के साथ ही,
समय भी रुक गया।

हो चाहे वो दुनिया का,
सबसे बड़ा अमीर।
भला कौन डाल सका है,
वक्त के पैरों में जंजीर।

आखिर हुआ वही,
जो होना था।
मेरे हिस्से में फिर से,
केवल रोना था।

सोने जैसा समय,
पल भर में बीत गया।
मैं हार गया और,
वक्त मुझ से जीत गया।

मैं एक भूला पंछी,
मेरा कहाँ स्थायी ठिकाना है।
भोर होते ही दाने की तलाश में,
मुझे बहुत दूर उड़ जाना है।

✍ अशोक नेताम "बस्तरिया"

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