रविवार, 24 दिसंबर 2017

||प्रकृति की कांति||

निशा गई,आया प्रभात,
प्राची से रवि निकला.
चहुँओर फैला प्रकाश,
रक्त सरोज जल में खिला.
हैं प्रसन्न,
हरित किसलय.
लिपटी लता तरु से
होकर निर्भय.
कुसुम मुस्काई,
समीर चंचल हुआ.
वसुंधरा सजी,
शिखर ने आकाश छुआ.
सरिता सुनाती,
कल-कल गान.
अलि कर रहे,
सुमनामृत पान.
है मनभावन,
प्रकृति की कांति.
देती हिय को,
जो अतीव शांति.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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