रविवार, 24 दिसंबर 2017

||भारत के विकास का सच||

आज हम पहली बार किरन्दुल शहर से बाहर अंदरूनी गाँवों में गये.मेरे साथ थे शासकीय अरविन्द महाविद्यालय के अर्थशास्त्र विषय के अतिथि प्राध्यापक डॉ. प्रभात पाण्डेय.

पहाड़ के उस पार गाँव का इलाका शुरू होते ही मुरम-गिट्टी व कीचड़ युक्त सड़क दिखे.
लगभग 1-2 कि.मी.आगे जाने पर एक प्राथमिक शाला दिखी.जहाँ एक शिक्षिका और कुछ बच्चे स्कूली यूनीफॉर्म में नजर आए.

रास्ता सुनसान मगर प्राकृतिक सौंदर्य से भरा पड़ा था.सड़क के किनारे खड़े पेडों की सुंदरता और पहाड़ियों से बहकर आती जलधाराओं की कल- कल ध्वनि भी बहुत आह्लादक थी.दो-चार घर मिल जाते थे,समझो वही गाँव है.कुछ महिलाएँ सड़क पर चलती दिखीं.कुछ व्यक्ति सड़क पर झूमते हुए भी चल रहे थे.

रास्ते में एक जगह एकदम सीधा चढ़ाव था,जिस पर चढ़ते हुए दोनों ओर पेड़ों की हरियाली देखना बहुत रोमांचकारी अनुभव था.
आगे  एक गाँव है मड़कामी पारा,जहाँ हाई स्कूल है,साथ ही स्कूली छात्रों के लिए एक छात्रावास भी है.

और आगे जाने पर गाँव मिला हिरोली.जहाँ दो शिक्षिकाएँ बच्चों को मध्यान्ह भोजन करवा रही थीं.उनका रसोइया न होने के कारण उन्होंने खुद भोजन बनाया था.उन्होंने बताया कि यहाँ बच्चों को स्कूल तक लाना बड़ा ही मुश्किल काम होता है-पालकों में जागरुकता का अभाव है-महुआ फूल बीनने के मौसम में तो बच्चों की संख्या और भी कम हो जाती है.हमने उनको-उनके जज़्बे को सलाम किया,वे इतने सुनसान जंगलों के बीच गाँवों में शिक्षा का अलख जगाने का साहसिक और दुष्कर कार्य जो कर रही हैं.
गाँवों के सभी शालाएँ बहुत ही सुन्दर और सुसज्जित नजर आए.

आते-आते कुछ और सुन्दर दृश्य दिखे.सेम की लताओं को सहारा देने के लिए लंबे-सीधे बाँस कतारबद्ध जमीन में गाड़े गए थे,जिस पर लिपटे हरे-भरे बेल नीले आसमान को छूने को आतुर और बहुत ही आकर्षक दिखाई दे रहे थे.गाँव के झोपड़ीनुमा घर यहाँ के लोगों की उपेक्षा और निर्धनता की कहानी कह रहे थे.

बाँस की बल्लियों और खंभों में बड़े ही कलात्मक तरीके से पिरोकर घर का घेराव किया गया था.जो बहुत ही सुन्दर प्रतीत हो रहा था.केले के पेड़ भी कुछ घरों की बाड़ियों में नजर आ रहे थे.

रास्ते में दो बच्चे हमें देखकर मुस्कराते हुए हाथ हिला रहे थे.उनके तन खुले हुए थे.वे दोनों आँगन में खेल रहे थे.शायद उनके माता-पिता घर पर नहीं थे.रुककर पास बुलाने पर निडरतापूर्वक वो मेरे पास आ गए.मैंने सोचा काश कि मेरे पास चॉकलेट होते.

वापस आते एक औरत की समाधिस्थल दिखाई दी.लम्बे-लम्बे पत्थरों को लगभग गोल घेरे में जमीन में गाड़कर खड़ा किया गया था.साथ ही एक पटल उस महिला का रंगीन चित्र,नाम व मृत्यु की तिथि भी अंकित किया गया था.संभवत: वो गाँव की एक सम्माननीय और प्रतिष्ठित महिला रही हो.यात्रा के दौरान दन्तेवाड़ा-किरन्दुल मार्ग पर भी ऐसे बहुत से पाषाण स्तंभ दिखाई दे जाते हैं.

घण्टे भर की यात्रा के वाद हम वापस किरन्दुल पहुँचा.पर लगा कि केवल एक घण्टे के सफर में मैं हजारों वर्ष पहले की दुनिया में पहुँच गया.न जाने और कितने गाँव होंगे जहाँ लोग दूषित पानी पीते होंगे,जहाँ की भर्भवती औरतें,वृद्ध,गंभीर रोगी आदि सड़कों की बदहाल स्थिति के चलते मृत्यु की गोद में सो जाते होंगे.जहाँ शहरों की चकाचौंध से दूर रातों को केवल सन्नाटा पसर जाता होगा.

कैसी विडम्बना है कि यहाँ से दिन रात लोहा ले जाकर भारत समृद्ध हो रहा है,और यहाँ के स्थानीय लोग आज तक केवल अपनी गरीबी और उपेक्षा से लोहा ले रहे हैं.

(ये विचार मेरे स्वयं के हैं.मेरे द्वारा जाने-अनजाने में किसी तरह की अपूर्ण या त्रुटियुक्त जानकारी लिखी गई हो तो मैं करबद्ध क्षमाप्रार्थी हूँ.)

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
       

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