रविवार, 24 दिसंबर 2017

||चल आज गाँव की ओर||

मनभावन गाँव.
वृक्षों की छाँव.
वो प्रभात का सूर्योदय.
जीव विचरते होकर निर्भय.
फूलों की महक.
चिड़ियों की चहक.
लहलहाते हरे-भरे खेत.
चमकती नदी की रेत.
अभाव में जीते ग्रामवासी.
किंतु मुख पर नहीं उदासी.
अर्धनग्न-श्याम तन.
दर्पण सा स्वच्छ मन.
हवाओं की ताजगी.
भाती लोगों की सादगी.
नहीं समय करने को आराम.
परिश्रम करते ये सुबह-शाम.
खाते ये बासी,पीते हैं पेज.
मेहनती ये,हर काम में तेज़.
न जानते किसी से जलना.
न सीखा किसी को छलना.
मासूमियत टपकती है आँखों से.
सरलता प्रकट होती है बातों से.
चाँदी सी उजली चाँदनी रात.
तारों में छिपे रहस्य की बात.
बसते जहाँ श्रमवीर किसान.
अन्नदाता-जो जग के हैें भगवान.
न भेद कोई छुपाते दिल के.
सब रहते हैं मिल के.
पक गए कान मेरे,
सुनकर शहर के कर्कश शोर.
मन कह रहा आज मेरा,
कि चल आज गाँव की ओर.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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