रविवार, 24 दिसंबर 2017

||मैं प्रकृतिपुत्र||

ये नीलाकाश पिता मेरा,
और हरित वसुंधरा मेरी माता है.
मात-पिता के अंक में,
मेरा हृदय अतीव सुख पाता है.

ऊपर जाती है,
जब-जब मेरी दृष्टि.
लगता ज्यों हो रही हो,
मुझ पर पितृस्नेह की वृष्टि.

नभ पर बनते हैं प्रतिपल,
बादलों के सुन्दर आकार.
है सत्य कि प्रकृति से बढ़कर,
नहीं और कोई कलाकार.

जब जीव सारे जग के,
भूख-प्यास से तरसते हैं.
तब जल का रूप लेकर,
मेघ धरती पर बरसते हैं.

संग लेकर अपने सहस्रों रंग,
रवि साँझ-सबेरे आता है.
गगन पटल पर नित्य वो,
रंग-बिरंगे चित्र बनाता है.

अपने पुत्रों को धरा ने,
कई तरह का उपहार दिया है.
उसनेे अपने गर्भ में,
अमूल्य वस्तुओं को धारण किया है.

धरती माँ के वक्ष पर जब,
किसान का हल चलता है.
उसके श्रम से द्रवित होकर,
मिट्टी सोना उगलता है.

न रुकना-थकना तुम कभी,
सबसे सरिता कहती है.
सबके हित के लिए वो,
कल-कल करती बहती है.

यहाँ विविधरंगी सुमन खिलते,
मधुर मधुकर-विहगों का गायन.
देख ऐसी अनुपम शोभा,
क्यूँ करे कोई,यहाँ से पलायन?

विशाल वृक्ष भी खड़े चुपचाप,
किसी से कुछ नहीं कहते हैं.
पर रहकर भी वे मौन सदा,
परहित कार्यरत रहते हैं.

है धन्य उस मनुज का जीवन जो,
प्राकृतिक सुषमा का संसर्ग पाता है.
है गर्व मुझे कि इस धरती से,
मेरा जनम-जनम का नाता है.

✍ अशोक नेताम "बस्तरिया"

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